सुप्रीम कोर्ट में उत्तर प्रदेश सरकार के ‘गैरकानूनी धर्म परिवर्तन विरोधी अध्यादेश 2020’ को चुनौती देने वाली दो जनहित याचिकाएं दायर की गई हैं। इसमें से एक याचिका दिल्ली के एक वकील ने दायर की जिसने ‘उत्तराखंड फ्रीडम ऑफ रिलीजन एक्ट 2018’ को भी चुनौती दी है। वहीं, दूसरी याचिका दिल्ली और प्रयागराज के वकीलों और कानून पढ़ने वाले छात्रों के एक समूह ने दायर की है।
इन याचिकाओं में दावा किया गया है कि यूपी का अध्यादेश और उत्तराखंड का कानून, ये दोनों ही अनुच्छेद 21 के तहत निजता के मौलिक अधिकार और अनुच्छेद 25 के तहत धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता का उल्लंघन करते हैं। इनमें ये भी तर्क दिया गया है कि यूपी सरकार का अध्यादेश और उत्तराखंड सरकार द्वारा पारित कानून अंतरजातीय विवाह पर प्रतिबंध लगाकर स्पेशल मैरिज एक्ट के प्रावधानों का उल्लंघन करते हैं और इससे समाज में “डर पैदा होगा”. साथ में ये भी दलील दी गई है कि ये कानून “किसी भी व्यक्ति को गलत तरीके से फंसाने के लिए समाज के अराजक तत्वों के हाथों में एक शक्तिशाली हथियार की तरह होंगे।” इन याचिकाओं में ये भी कहा गया है कि यूपी सरकार का कानून क्रिमिनल लॉ के मूल सिद्धांत को भी उलट देता है, क्योंकि इसमें जो व्यक्ति अपना धर्म बदल रहा है, उसी पर यह साबित करने का भार डाला गया है कि यह कोई धोखाधड़ी नहीं है. दूसरे शब्दों में “निर्दोष साबित होने तक उसे दोषी माना जाएगा.”
गौरतलब है, 24 नवंबर को उत्तर प्रदेश सरकार ने लव जिहाद के खिलाफ अध्यादेश को मंजूरी दी थी, इसके बाद 28 नवंबर को राज्यपाल आनंदीबेन पटेल ने इसे मंजूरी दे दी और ये कानून बन गया इसके अगले ही दिन इस कानून के तहत केस भी दर्ज किया गया।बरेली के रहने वाले एक युवक औवैस को एक लड़की पर जबरन धर्मांतरण का दबाव बनाने के लिए आरोप में गिरफ्तार किया गया।इस एफआईआर के मुताबिक, ओवैस लड़की को तीन साल से प्रताड़ित कर रहा था और उस पर शादी का दबाव बना रहा था,बरेली पुलिस ने उसे इसी लव जिहाद विरोधी कानून के खिलाफ गिरफ्तार किया था।