आईए जाने कि गढ़वाल में क्यों मनाया जाता है प्रकाश पर्व बग्वाल।

देहरादून उत्तराखंड 3 नवंबर। सम्पूर्ण गढ़वाल में प्रकाश पर्व बग्वाल की रात प्रकाशपुंज *( भैलो )* खेलने की परम्परा रही है… यह परम्परा गढ़वाल में 16वीं सदी से 1627 वर्ष में एक बड़ी घटना के करण प्रारम्भ हुई !

उस दौरान गढ़वाल श्रीनगर दरबार में *राजा महपत शाह* का शासनकाल था…! तिब्बत से तिब्बतियों के बार बार आक्रमण हो रहे थे..
महपत शाह के शासन काल में दो भड़ो का बड़ा बोलबाला रहा है *भड़ माधो सिंह भंडारी* प्रमुख सेनापति थे… व दूसरे सेनापति *भड़ रिखोला लोदी* रिखोला लोदी दक्षिण गढ़वाल की सीमा से हो रहे आक्रमणों को रोकने दक्षिणी सीमा (भाबर व कालागढ़ ) सीमा पर तैनात थे…!
परन्तु ज़ब तिब्बत से राजा शौका की सेना ने गढ़वाल पर आक्रमण कर दिया तो व्यथित हो महपत शाह ने *भड़ माधोसिंह भंडारी* के नेतृत्व में तिब्बत की ओर सेना भेज दी… छः महीने तक युद्ध चलता रहा..युद्ध लड़ते लड़ते माधो सिंह भंडारी अपनी युद्धकौशल कला व असीम शक्ति से तिब्बती सेना को गाजर मुली की तरह काटते हुए अंदरूनी तिब्बत तक खदेड़ दिया… और वहाँ तिब्बत और गढ़वाल की सीमा पर एक लंबी पाषाण सीमा रेखा का निर्माण कर दिया जैसे इतिहास में आज भी *मैक मोहन सीमा रेखा* के नाम से वर्णित किया जाता है….!

युद्ध जितने के पश्चात लौटने में सदूर तिब्बत से माधो सिंह को कई महीने लग जाते हैं…. सारे राज्यवासी व राजा महपत शाह शंका में पल पल गुजार रहे थे..बड़े बैचेन और व्यथित हो रहे थे…..राज्य वासियों को लग रहा था कि कदाचित माधो सिंह भंडारी युद्ध में मारे गये हैं …अन्यथा इतने समय से वे कहां हैं?
(माधो सिंह की माता एक दुखड़ा गीत गाती है… *बारा एनी बग्वाल माधो सिंह,… सोला एनी श्राद माधो सिंह… सब्बि घौर आया माधो सिंह,…तू घौर नी आयी माधो सिंगा )*
अचानक बग्वाल के ग्यारवें दिन भड़ माधो सिंह भंडारी युद्ध जीतकर अपने बचे खुचे सैनिकों के साथ शिरनगर दरबार पहुंच जाते हैं…!
यह देख राजा महपत शाह अत्यंत खुश होते हैं पूरे दरबार में खुशियों की बहार आ जाति है.. राजा एलान करते हैं *कि इस वर्ष पूरे राज्य में बग्वाल नहीं मनाई गयी है* इसलिये माधो सिंह के लौटने कि ख़ुशी में अब ग्यारह दिन उपरांत बग्वाल मनाई जाएगी…!
गढ़वाल के इतिहास में संन 1627 में दिवाली के ग्यारवें दिन दिवाली मनाई गयी… जिसे हम इगास बग्वाल कहते हैं…!

*भैलों की परम्परा*
उस रात पूरे राज्य में अंधकार पर प्रकाश का विजयोत्स्व *भैलो* जाला कर व ढोल दमो में जागर लगा कर विजया उत्स्व मनाया गया… उस इतिहासिक रात ने सम्पूर्ण गढ़वाल राज्य के अंतर्गत कालांतर में *भैलो* खेलने की परम्परा का आगाज हुआ व एक प्रथा अथवा परम्परा का चलन प्रारम्भ हुआ!

*ये है असली कहानी भैलो परम्परा की*
तरुण मोहन (उत्तराखंडी पहाड़ी)

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